Sunday 14 September 2014

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं

आज हिंदी दिवस के उपलक्षय मेँ मेरे एक मित्र अनुराग ने अपने फेसबुक पृष्ठ पर कुछ ऐसा लिख दिया कि उससे विवाद सा खड़ा होता दिखने लगा | यह रही वो चंद पंक्तियाँ 

"It has always been my conviction that Indian parents who train their children to think and talk in English from their infancy betray their children and their country. They deprive them of the spiritual and social heritage of the nation, and render them to that extent unfit for the service of the country."
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत हिय को सूल॥
हिंदी दिवस की शुभकामनाएं |

मैं समझता हूँ अंग्रेजी में लिखी हुई इस बात को पढ़ कर हम में से अधिकाँश लोगों के मन में कुछ प्रश्न खड़े हुए होंगे | मैं उन लोगों का धन्यवादी हूँ जिन्होंने अनुराग की फेसबुक पोस्ट पर अपनी टिप्णियां दी हैं | चूँकि मुझे लगता है कि इसे पढ़कर हम में से बहुत से लोगों के मन में इसी तरह के प्रश्न उठ रहे होंगे तो मैं अपनी बात को समझाने के लिए उन टिप्णियों का इस्तेमाल करूंगा | मैं यह बताना चाहूंगा कि अगर आज से एक वर्ष पूर्व तक मैं यह बात सुनता या पढ़ता तो मुझे भी बहुत अचम्भा होता | लेकिन पिछले एक वर्ष से शिक्षा के क्षेत्र मेँ काम करते हुए मैं कुछ ऐसे विचारों से अवगत हुआ हूँ कि उसने मेरे नज़रिये को काफी हद तक प्रभावित किया है | उनमें से कुछ विचार निम्नलिखित हैं -

1. अनुराग द्वारा उपर्लिखित बात महात्मा गांधी जी ने कही है | यह महात्मा गांधी ने किस सन्दर्भ में कही थी इसे जानने के लिए इच्छुक बंधुओं से मेरा निवेदन है कि कृपया करके "नई तालीम" नामक किताब पढ़ें | नई तालीम सिर्फ एक किताब नहीं है | यह एक शिक्षा व्यवस्था है | जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था | इस व्यवस्था पर आधारित स्कूल  की स्थापना वर्ष 1937  मेँ वर्धा, महाराष्ट्र मेँ की गई थी | भारतवर्ष  मेँ ऐसे कई कई स्कूल चल रहे हैं | इसकी थोड़ी सी झलक यहां देखें |

2. यह जो गांधी जी की बात है कि "जिन छोटे बच्चों को अंग्रेजी भाषा में बोलना और सोचना सिखाया जाता है वह भारत की आध्यात्मिक और सामाजिक विरासत से वंचित रह जाते हैं", उस बात को थोड़ा और गहराई में जानने के लिए यह समझना जरूरी है कि सामजिक और आध्यात्मिक विरासत है क्याउदहारण के तौर पर स्वयं से एक प्रशन पूछिये "आज तक मैने कितने उपन्यास हिंदी/भारतीय भाषाओँ में पढ़े हैं ?" और जब यह सवाल पूछें तो एक क्षण के लिए भी यह ना समझें कि कोई आपसे यह कह रहा है कि अगर आपने यह सब नही पढ़े तो आप एक अच्छे इंसान नहीं है | कुछ टिप्णियों में यह कहा गया है कि "अगर मुझे अपनी मातृभाषा नही भी आती तो क्या मैं एक अच्छा इंसान या अच्छा भारतीय नही हूँ |" आपकी मानवता या देशप्रेम पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है | यह बात तो हमारी विरासत के खिलाफ हो जायेगी | हम तो कहते हैं "वसुधैव कुटुम्बकम्"| सम्पूर्ण विश्व हमारा परिवार है | आपने नहीं भी पढ़े तब भी आप अच्छे इंसान हो सकते हैं किन्तु अगर हम में से बहुत से लोगों ने यह सब पढ़े होते तो हमें भी अपनी सभ्यता का थोड़ा और ज्ञान होता | इनको पढ़ने वालों की तादाद भी ज्यादा होती तो शायद आज इन सब किताबों की भी उतनी ही मांग होती, आज भी युवाओं और बच्चों की हिंदी/मातृभाषा साहित्य को लिखने-पढ़ने में रूचि होती |  यह सवाल भी आपके मन में उठना लाजमी है कि "क्यों जरूरी है यह भारतीय भाषाओं में उपन्यास पढ़ना, क्यों जरूरी है कि यह विरासत बचे, बच्चे इसमें रूचि लें, इस सबसे मेरा क्या लेना देना ?" तो शायद इसी सोच के लिए महात्मा गांधी ने कहा था कि इस सब का ज्ञान ना होना भी आध्यात्मिक और सामाजिक विरासत से वंचित रह जाने का एक अहम हिस्सा है |

3. एक जगह पर एक टिप्पणी में पूछा गया था कि क्या भाषा का संस्कृति में इतना महत्वपूर्ण स्थान है कि संस्कृति उसके बिना जीवित नहीं रह सकती है तो इस सन्दर्भ में  महात्मा गांधी, रवीन्दर्नाथ टैगोर जैसे महापुरुषों ने यह स्पष्ट शब्दों में कहा है कि भाषा एक संस्कृति का अभिन्न अंग है और हो भी क्यों ना | भाषा का मुद्दा सिर्फ भाषा तक नही है | इसके साथ एक पहचान जुडी हुई होती है | यह पहचान बहुत गहराई तक हिल सकती है अगर आपके बाल्यकाल में ही आपको अपनी मातृभाषा के साहित्य से दूर रखा जाए | इस बात कि अधिक जानकारी के लिए The danger of a single story देखें | इन सब बातों का मतलब इतना सा है कि भाषा के साथ संस्कृति और सभ्यता का गहरा सम्बन्ध है | वरना क्यों अब महादेवी वर्मा और प्रेमचंद जी जैसे साहित्यकारों के बारे में सुनने को नहीं मिलता है |

4. टिप्णियों में कुछ बंधुओं ने कहा है कि देशप्रेम मन से होता है और देश सेवा बहुत सारे अंग्रेजीभाषी भी करते हैं | तो उस बात पर वैसे तो यह बिलकुल भी नही कहा जा सकता कि देशप्रेम एक भाषा की वजह से कम हो जाता है | लेकिन यह जरूर है कि किसी एक भाषा के साथ जुड़े आर्थिक लाभों की वजह से हम उस भाषा का एक रूतबा मानने लग जात्ते हैं | उस रुतबे के बारे में हमारी सोच हमें बहुत हद तक प्रभावित कर सकती है | इस हद तक प्रभावित कर सकती है कि फिर हम लोगों का देश सेवा और मानवता की भलाई को देखने का नजरिया ही बदल जाए और यह इस हद तक बदल सकता है कि हम जाने-अनजाने धार्मिक कटरपंथियो की तरह सोचने लग जाएँ, कि हमारे धर्म या किसी एक भाषा के बिना मानवता का भला संभव नही है | अधिक जानकारी के लिए Schooling the World देखें |

5. कहीं एक जगह पर बहुत ही मार्मिक सवाल उठाया गया था कि "क्यों मैं किसी भाषा की इज़्ज़त करूँ ? सिर्फ इसलिए कि वह भाषा मेरी मातृभाषा है |" तो मैं इस चीज़ को दो पहलुओं से देखता हूँ एक तो आध्यात्मिकता का पहलु है कि " मेरा इस दुनिया में क्या ही है, क्या मातृभाषा, क्या देश, क्या माता, क्या पिता, क्या भाई, क्या बहन | हम सब, सारा ब्रह्माण्ड एक ही है |" अगर इस पहलु से यह बात कही गई है तब तो वह मनुष्य आध्यात्मिका की राह पर बहुत आगे बढ़ चुका है, और उसे मेरा कोटि-कोटि नमन | परन्तु अगर यह बात किसी और नज़रिये से कही गई है तो जैसा कि ऊपर दिए गए वीडियो में बताया गया है कि हम यह न भूलें कि भाषा, साहित्य का अभाव मनुष्य की पहचान पर सवाल उठा देता हैइस प्रश्न का उत्तर लिखते वक़्त मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर आज लार्ड मैकॉले होते तो यह सब सुनकर कैसा महसूस करते | उनके 2 फ़रवरी 1835 के भाषण के बारे में यहां पढ़ें | (एक मित्र हितेश के बताने पर मैंने पुराना चित्र हटाकर लार्ड मैकॉले के भाषण का सही लिंक दिया है |) शायद यह सब सुनने के लिए ही उन्होंने भारत की शिक्षा प्रणाली को बदला था |   

6. जब लोग कहते हैं कि आज के ज़माने में गांधी जी की यह बात आधे भारतवर्ष को बुरी लग जायेगी तो मैं उनका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि वर्ष 2000 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में सिर्फ 3.26 लाख लोग ऐसे हैं जो अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा मानते हैं | रही बात बच्चों को बाल्यकाल से अंग्रेजी में डुबोने की, तो एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत मेँ सिर्फ 2 करोड़ बच्चे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों मेँ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं | अगर उनके परिवारों को भी मिला लें तो मोटे से तौर पर 10 करोड़ लोग हुए जो कि मुश्किल से 10 प्रतिशत भारत भी नहीं हुआ तो 50 प्रतिशत  भारत की बात तो ना ही करें |

7. टिप्णियों में एक और दिल को छू लेने वाली बात कही गई है कि अंग्रेजी ही हम भारतीयों को जोड़ती है | लेह से कन्याकुमारी तक हम मेँ से अधिकाँश लोग अंग्रेजी जानते हैं | यह बात एक दुर्भाग्यपूर्ण सच है और इसमें भी हमारी आपसी विखंडता और औपनिवेशिक विचारधारा का ही कारण है कि जब देश आज़ाद हुआ तो हमारे पूर्वजों ने बोला कि हम अपनी धरती की किसी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्ज़ा नही देंगे बल्कि हमारी औपनिवेशिक विरासत को पालेंगे | आज इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि लेह से कन्याकुमारी तो छोड़ो, आज तो यह भी देखने को मिलता है कि एक ही राज्य के, एक ही जिला के दो नौजवान आपस मेँ अंग्रेजी मेँ बात करने को रुतबे की बात समझते हैं |  

8. एक टिप्पणी मेँ ऐसा कहा गया था कि 100 वर्ष बाद सारे भारतीय बच्चे अंग्रेजी सीख जाएंगे तो क्या भारत का अस्तित्व खत्म हो जाएगा या क्या उस वक़्त उन बच्चों को हम बेकार कहेंगे तो इसका जवाब मैं दो स्तरों पर देना चाहूंगा | एक तो मैं बताना चाहूंगा कि महात्मा गांधी ने कदापि यह नही कहा कि अंग्रेजी बिलकुल ना सिखाओ | वह तो स्वयं विलायत में पढ़े हैंउनका कहना सिर्फ इतना है कि अंग्रेजी में बोलने और सोचवाने की प्रबल इच्छा से कहीं ऐसा तो नही कि हम मातृभाषा ना सीखा रहे हों | जब मैं भाषा सीखने-सीखाने की बात करता हूँ तो मैं सिर्फ उस भाषा मेँ वार्तालाप की बात नही करता | क्या हम उस भाषा में लिखना-पढ़ना सिखा रहे हैं ? और किस हद तक सिखा रहे हैं ? सिर्फ चंद इम्तिहान पास करने के लिए या फिर उस हद तक कि बच्चे को अपनी मातृभाषा से प्रेम भी होवो उसकी इज़्ज़त भी करे और उसके साहित्य की तरफ उसकी रूचि भी पैदा हो | अगर आपको लगता है कि इस सबसे क्या ही फर्क पढ़ता है तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि पूरे विश्व में मोटे तौर पर हर 2 हफ्ते में एक भाषा की मृत्यु हो रही है | अधिक जानकारी के लिए इस रिपोर्ट को पढ़ें | अब आप यह भी कह सकते हैं कि उससे क्या ही फर्क पड़ता है | अगर एक दिन सारा विश्व एक ही भाषा बोलने लगे भी तो क्या?  जिस दिन यह चीज़ हम लोगों को समझ में गई उस दिन बाकी सवाल खुद सुलझने लग जाएंगे |

आपकी 100 वर्ष में भाषा की विलुप्ति की चिंता या आशा को लेकर मेरा दूसरा जवाब भावनात्मक स्तर पर है , आप चिंता या आशा छोड़ दें क्योंकि किसी शायर ने अपनी मातृभाषा में कहा है कि "सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी |"

जय हिन्द |         

P.S. -  If your mother tongue is Hindi and you still find it difficult/impossible to read this blog then this can be a reminder that how far we have come from our own languages. "But how does that matter?" If you still have this question then God Bless You and God bless India.      

2 comments:

  1. इस पोस्ट के लिए धन्यवाद | जवाब में मैंने यह पोस्ट लिखा है :
    http://tanaysukumar.in/hindi-diwas-debate/

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    1. मित्र तनय,

      आपका जवाब पढ़कर ह्रदय बहुत प्रसन्न हुआ | आपका हर विचार ऐसा दिल को छू रहा है | चंद बातों पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा |

      1 . अगर आप मेरा ब्लॉग ध्यान से पढ़ेंगे तो पाएंगे कि कहीं भी मैने ब्लॉग में यह नहीं लिखा कि यह पंक्ति गांधी जी ने "नई तालीम" में कही है | बस इतना कहा है कि सन्दर्भ को गहराई से समझने के लिए 'नई तालीम' पढ़ें | जितना उसे पढ़ कर मैं समझ पाया हूँ तो गांधी जी ने शायद उन्ही अभिभावकों की बात कही है जिनका उद्देश्य बच्चे को झूठी शान में अपनी संस्कृति की सूली चढ़ाकर अंग्रेजी में निपुण बनाना है या फिर जो बिना उद्देश्य के भी जाने-अनजाने यह कर रहे हैं |
      2 . अंग्रेजी दुनिया को जोड़े | जैसा की मैने कहा हम तो "वसुधैव कुटुम्बकम्" को मानते हैं | हम तो इससे बहुत प्रसन्न होंगे | किन्तु बस इस जोड़- जुड़ाव के चक्र में कहीं हम अपनी धरोहर, अपनी संस्कृति को ही नीच नज़र से देखना न शुरू कर दें , या शायद कुछ भारतवासी शुरू कर भी चुके हैं | जैसा कि आपने भी चिंता जताई है कि ऐसा तो होगा ही तो बस मुझे डर इस बात का है कि अगर हम खुल कर बात नहीं करेंगे तो यह बहुत जल्दी होगा और कहीं हम इसके होने में मदद ना कर दें , या मूक बन कर देखते ना रहें |

      3 . तनय जी जब आप यह कहते हैं कि क्यों ना हम आध्यात्मिक और सामाजिक अंगों से आगे जाकर संपूर्ण जगत की सेवा बारे में सोचें तो मन बहुत प्रफुलित हो उठता है | शायद यह ही बातें हमारे आध्यात्म में भी लिखी हुयी हैं , वसुधैव कुटुम्बकम्" , "सर्वे भवन्तु सुखिनः" आदि | और शायद इन्ही बातों के लिए गांधी जी चाहते थे की हम अपनी आध्यात्मिक और सामाजिक धरोहर से वंचित ना हो जाएँ |
      4 . जब आप कहते हैं कि सभ्यता में कई चीज़ें आती जाती रहती हैं और यह भाषाएँ अगर चली भी जाएँ तो क्या परेशानी है | डर सिर्फ इतना सा है कि जाते - जाते यह ऐसे ना जाएँ कि लोगों को अपनी सभयता - संस्कृति नीच और तुच्छ लगे | लोग बस यही सोच के जीतें रहें की हमारी विरासत में तो कुछ था ही नहीं या कुछ है ही नहीं |.
      5. बंधु, जब आप यह लिखते हैं कि मैने यह पूछ कर कि "आपको पोस्ट पढ़ने में दिक्क्त तो नही हुई?" आपकी सांस्कृतिक काबिलियत को परखा है तो मुझे बहुत दुःख होता है | मैने एक क्षण के लिए भी नही कहा कि हिंदी मातृभाषी पोस्ट ना पढ़ पाएं तो वह सांस्कृतिक नही हैं | मैं तो बस इतना कहा था कि पोस्ट पढ़ने मैं हुई कठिनाई इस बात का प्रतीक है की हम अपनी भाषाओं से कितना दूर आ चुके हैं |

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